मुरझाई हुई पड़ी है इक तजा गुलाब,
जैसे बरसात की पहली काली।
जो होठों पे कभी लाली खिला करती थी,
वो अब सफ़ेद पड़ी हुई है।
जो आँखों की गेहराईयों के सामने,
फीके पड़ते थे हज़ारो सागर की गहराई,
वो आँखें अब बंद पड़ी है,
उन आँखों मे बस छायी हुई है एक बेजुबान दर्द ।
उमर कितनी होगी उस गुलाब की,